Monday, November 30, 2009

"बेरोजगार जवानी"

एक रात एक ख्वाब ने किया परेशां इस कदर |
रात भर घुमते रहे इधर उधर ||
कैसे बताएं उस रात की रवानी को |
कैसे भूल जाएँ उस ख़ूबसूरत कहानी को ||
उस ख्वाब में कोई मेरा अपना था |
लेकिन वो एक बीता हुआ सपना था ||
काश बन जाता वो हकीकत |
तो बदल जाती मेरी भी किस्समत ||
वो रात तो आँखों आँखों में कट गई |
लेकिन ये जिन्दगी टुकड़ों में बंट गई ||
उस ख्वाब से परेशां थी रातें मेरी |
वो हकीकत हो जाती तो संवरती जिन्दगी मेरी ||
उस ख्वाब में एक हसरत थी मेरी |
ऐ नौकरी जरुरत है तेरी||
उस ख्वाब में बन गया था कर्मचारी |
लेकिन अभी जिन्दगी में है बेरोजगारी ||

Sunday, November 22, 2009

" बारूद के ढेर पर रखा है जहां सारा"

बारूद के ढेर पर रखा है जहां सारा|
डर-डर के जीता है इंसान बेचारा ||
खुदा ने बक्शी थी कायनात प्यारी-प्यारी|
ज़माने ने खीच दी सरहद न्यारी-न्यारी ||
सरहद की लड़ाई में हो गए कई कुर्बान|
फिर भी न आया नतीजा-अ-फरमान ||
बाज़ारों में महंगे होने लगे है कफ़न|
और कई लाशें करनी है दफ़न||
जाने क्या चाहते है वो नापाक मन |
क्यों बने बैठे है इंसानियत के दुश्मन ||
बेगाने भी नहीं करते ऐसे सितम|
जो अपनों ने ही दे दिए जख्म ||
देखना चाहते है हम वो ख़ूबसूरत मंजर|
खिल उठे ये बेजान ज़मी बंजर ||
ख़ुशी से मने हर और दिवाली |
ईद पर हो हर और खुशहाली |
बैसाखी पर हो चारों और हरियाली|
और क्रिसमस पर नाचे दुनिया सारी||
उस दिन की तलाश है हमे |
होंसला है तो आस है हमे ||
क्योकि बच्चा-बच्चा घूम रहा है मारा-मारा|
बारूद के ढेर पर रखा है जहां सारा ||
डर-डर के जीता है इंसान बेचारा |
बारूद के ढेर पर रखा है जहाँ सारा||

Thursday, October 22, 2009

मैं बर्बाद-ऐ-गुलिस्तां का सूखा झाड़ हूँ...

मैं बर्बाद-ऐ-गुलिस्तां का सूखा झाड़ हूँ...
कल तक तो मैं आबाद था, पर अब बर्बाद हूँ....

तोता-मैना मिला करते थे मेरी डाल पर...
खिल जाता था मेरा चेहरा मोर की आवाज पर...

बारिश की बूँदें मुझे छेड़-छेड़ कर जाती थीं...
खूबसूरत कलियाँ मुझ पर भी खिल आती थीं...

लेकिन फिर चला आया खिज़ा का मौसम...
हो गईं इक दिन आँखें मेरी भी नम...

चारों तरफ नज़र आ रहा था पतझड़...
लग रहा था आने वाले दिनों से मुझे डर...

मेरे अरमान बिखर गए पत्तों की तरह...
पंछी भी उड़ गए बेगानों की तरह...

पहले मै लेह-लद्दाख था, अब तो बग़दाद हूँ...
मै बर्बाद-ऐ-गुलिस्तां का सूखा झाड़ हूँ...

एक बार फिर एक दिन सावन का वो कल आएगा...
उस पल के लिए मैं बेकरार हूँ...
पहले मैं आबाद था, अब बर्बाद हूँ...
मैं बर्बाद-ऐ-गुलिस्तां का सूखा झाड़ हूँ...



-खेम (k.c.)